Thursday, February 25, 2016

कल्पना हूँ मै गर यथार्थ मे मुझे डूबो दोगे 
हाँ! पा लोगे मुझे पर मुझे ही तुम खो दोगे

धरा के अन्तर्मन मे भी पनपता बीज कोई
गर बादलो स्नेह से अपने तुम उसे भिगो दोगे..
...........शब्द सरिता-सविता
पतझड़ मे जब
सूख कर कुछ पत्ते गिरे थे
हर एक पत्ते पर 
लिखी थी उसकी 
अपनी एक कहानी 
मै तो बस उन पत्तो को
आहिस्ता आहिस्ता उठाती हूँ
बताओ भला होगी क्यों
शिकायत इस जमाने को
कि भला  मै शाख कोई हिलाती हूँ....

.......................शब्द सरिता-सविता  
सोचती हूँ
कभी कभी मै
लम्हा वो
सवाल बन कर
उभरा ही क्यो
जो जवाब मे
ढल न पाया
न जाने वक्त ने
जिन्दगी को या
जिन्दगी ने था
वक्त को सताया
भीड बहुत थी आतुर
साथ चलने को
कदम कदम पर
पर थी जब धूप
ज्यादा तल्ख
सिर्फ मेरे साये ने ही
साथ मेरा निभाया ...

.......................शब्द सरिता-सविता  
न जाने कैसा ये अजीब अहसास है...
शायद वक्त का पहलू कोई खास है..
गुलशने खुशबूं क्यों गैर सी है आयी...
टूटे तितली के पंख गुल बदहवास है ।।

.......................शब्द सरिता-सविता  
तुम रंग और
रेखाओ के दरमियां
ढूढंते हो आकृतियां
और उन आकृतियों मे
विस्मृत कर देते हो 
पृथक पृथक वजूद
रंगऔर रेखाओ का
तभी तो नजर आती है
तुम्हे तस्वीरे बिल्कुल सपाट


मानिद दिवार सी
और कह देते है
दिवारे बोलती कहां है
पर नही है तुम्हे पता
कि दिवारे सुन तो लेती है ....
...................और टटोलती है कान तुम्हारे .....

...........शब्द सरिता-सविता
लहरे स्मृतियों की
वक्त से, बटोर के लाती
मोती सुनहरी यादों के
और ख्वाहिशों के किनारों पर
नजर आते हैं जब लम्हे 


कई सुनहरे बिखरे हुए
मै बस देख पाती हूँ
रेंत पर बिखरे अल्फाज़
जो बह गये है दूर कहीं
स्मृतियों की लहरों के साथ
तुम चुग लेना सुनेहरे मोती
मै साथ ले आऊंगी वही
सीली सी रेत अपने साथ......

............शब्द सरिता-सविता

Tuesday, February 16, 2016

एक कहानी .........
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*******खनक-चूड़ी की**** 
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आज फिर अराधना कसमसा कर रह गयी जब रानी का फोन आया कि मेमसाब मै आज नही आऊँगी ।तीन चार रोज पहले भी जब वो छुट्टी के बाद आयी थी तो कहां अराधना ने उसे काम करने दिया था ।हाथ पर पट्टी देख जब रानी से सवाल किया तो बोली चूडी पहनते वक्त हाथ कट गया।बात सिर्फ तीन चार रोज पहले की नही थी ,ये सिलसिला तो कई महिनो से चल रहा था ।तकलीफ अराधना को बस इसी बात की थी। तभी डस्टिग करते वक्त अलमारी पर से गिर कर उसकी डायरी उसके सामने आ गयी।डायरी देख अचानक उसे याद आ गयी अपनी ही कही बात कि "काँच की चुडियाँ असानी से मुड़ती नही चाहे टूट भी जाये तभी तो आत्मविश्वाश की खनक से वो हरदम खनकती है। " सहसा ही अराधना ने पर्स उठाया और निकल पडी रानी के घर की तरफ ताकि रानी को भी उसकी चुडियो की खनक सुना सके।.... 
........सही भी तो है खनक चूड़ी की दिखायी कहाँ देती है ये तो बस सुनायी देती है।
............शब्द सरिता-सविता

Monday, February 15, 2016

तुम तसव्वुर हो
तुम ख्याल हो
बस की उलझा
हुआ सा
तुम सवाल हो..

बनायी थी इक रोज
जो तस्वीर मैने
 उसके बिखरे रंगो मे
बस की रेखाओ का
सिमटा हुआ सा
जाल हो...

तुम तसव्वुर हो
तुम ख्याल हो...
.........शब्द सरिता-सविता

Thursday, February 11, 2016

कहानी छोटी सी..........
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******आवाज-लाठी की*******
******************************(छोटा सा प्रयास)
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हर कहानी कई किरदारो मे बटी हुयी होती है ।बस की इतना समझ लो सांसो की सरजमीं पर एक दुसरे से सटी हुयी होती है ।ये वक्त ही है जो दरमियां फासले बनाता चलता है ।तभी तो कोई अपना ही अपने दर्द की वजह बनता है।
जाने कैसे कैसे सवाल आज जवाब दर जवाब उसके मन मे चले आ रहे थे ,जिन्हे सुनेहरे अक्षरो मे सहेज लेना
चाहती थी अरूधती अपनी उस ङायरी मे जिसका हर पन्ना भीगा हुआ था पिछले कई सालो से।आँखे आज भी गीली थी लिखते वक्त धुधंला सा दिख रहा था पर वह जानती थी कि चश्मे का नम्बर नही बढा है वजह ये खुशी के आंसू है ।अनिकेत जो लौट आया है ,बहू और बच्चो के साथ ।फिर भी वो लाठी उठाये अनिकेत के कमरे की तरफ बढ चली उससे कहने की शायद उसके चश्मे का नम्बर बढ गया कल ले चले उसे दिखाने।वक्त की सरजमीं पर आज अरूधती की चाल और लाठी की आवाज मे बेबसी और खामोशी नही थी
गूंज थी उसके ममत्व के हक की ।
लाठी की पटकती आवाज आज तब्दील हो चुकी थी लाठी की खनकती आवाज मे।

..........शब्द सरिता-सविता

Monday, February 1, 2016

हाँ...ऐ!वक्त
दफन कर 
चुकी हूँ मै
इस साथ के 
अहसास को ....

माना कि राह मे
दूर तलक 
निशां लहू के
नजर आयेगे 
पर अब निकाल
चुकी हूँ मै
पैरो मे चुभती
फांस को .......

दफन कर 
चुकी हूँ मै
इस साथ के 
अहसास को ......

अब भले ही
धडकने ये 
यादो की धोंकनी 
पर झोक दे 
मेरी हर सांस को......

दफन कर 
चुकी हूँ मै
इस साथ के 
अहसास को......
..........शब्द सरिता-सविता

वक्त की लहरों में
जाने क्या-क्या
बहता चला गया 
सिलापन किनारों का
सब दास्तां कह गया
समेट ली सागर ने
सब खामोशी
तन्हाई और
विरानियाँ
छोड़ दी किनारों पर
सीप मोती और
सुनहरे पत्थरों
की निशानियाँ
सहेज लेना तुम इन्हें
मेंज की दराजों मे
सोंधी सी खुशबूँ
अश्कों की बरसात
सुनेहरी सीपियों
में कैद
कही-अनकही
हर बात
पूरा एक समुद्र है
अब तुम्हारे हाथ
सौदें तन्हाई के
आखिर कर ही
लेते है जज्बात .....

सोचती हूँ कभी कभी
जिस पेड़ की 
छांव मे पाकर 
विश्वास की खाद
अंकुरित हो गयी थी
स्नेह की वृक्ष लता
बिना सोचे बिना समझे
कि नही होता है
हर पेड़ बरगद सा
धुन मे अपनी
चली जा रही थी
सजती संवरती
कोमल कलियों
से निखरती
सहसा हुआ
एक व्रजपात
मुस्कुराता पेड़
नजर आया
अचानक हताश
उसके स्नेह की
कोमल लताओ पर
वो प्रेम पुष्प
तलाश रहा था
मानो जड़ो को
उसकी कोई खोद़
कर उखाड़ रहा था
अब बस पेड़ खड़ा है
विश्वास बिखरा पड़ा है 

और पड़ी है कुछ
मृत लताये
अनगिनत सवाल
खुली आँखो मे
नजर आये
पुछ रही है
सबसे कबसे
कोई तो ये बताये
इस जगंल मे
कोई रिश्ता कैसे निभाये .....
.......................शब्द सरिता-सविता  
देह के देवालय मे
मन मुर्ति की
भगिंम प्रतिमा
सहेजती खुद को
कम नही
होने देती
बनाये रखती है
भ्रम शखंनाद का
लम्बा तिलक
कुमकुमी उजास का
लौ दिये की
समेट लेती है 

हर अन्धकार
भीतर खुद में

करने को
फिर एक उजास
नव प्रभात का
टूटे हुये विश्वास का
रात कितनी भी अंधेरी क्यों न हों
खत्म होती जरूर है ...
...........................शब्द सरिता -सविता