देह के देवालय मे
मन मुर्ति की
भगिंम प्रतिमा
सहेजती खुद को
कम नही
होने देती
बनाये रखती है
भ्रम शखंनाद का
लम्बा तिलक
कुमकुमी उजास का
लौ दिये की
समेट लेती है
हर अन्धकार
भीतर खुद में
करने को
फिर एक उजास
नव प्रभात का
टूटे हुये विश्वास का
रात कितनी भी अंधेरी क्यों न हों
खत्म होती जरूर है ...
...........................शब्द सरिता -सविता
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